श्री गणेशदत्तगुरूभ्यो नम :
श्रीरामगुरू चरित्र
॥ अध्याय 13 वा ॥
॥ श्री गणेशाय नम:॥ श्री सरस्वत्यै नम:। श्रीगुरूभ्यो नम:। जय जय श्रीसरस्वती माते। विद्यादायीनी तुज नमिते। अनन्यभावे चरण धरीते। कृपा करी माझ्यावरी ॥ 1 ॥ एकचि वर देई आता। स्फूर्ती जागृत ग्रंथ लिहिता। वाग्देवी विणाधारीणी। ेतवसन मयुरासनी ॥ 2 ॥ प्रसवीस माते जग़ाननी। सकल विद्येची दायिनी। आशिर्वच शुभवचनी। वरदहस्त असो शिरी ॥ 3 ॥ जगारंभापासुनी आजवर। किती एक झाले अवतार । त्याची गणना कोण करणार। दत्तावतार धन्य जगी ॥ 4 ॥ कृतयुगात जनार्दन। त्रेतायुगी रघुनंदन। द्वापारयुगी रामकृष्ण। कलियुगी श्रीपाद श्रीवभ ॥ 5 ॥ ऐसे कथियेले दत्तचरित्री। वदले नृसिंहसरस्वती। कलियुगात गुप्तरिती। अखंड आमुचे भ्रमण हो ॥ 6 ॥ अवतारा नाही अंत। अविरत आम्ही जागृत। भक्तरक्षणा धावू त्वरीत। ब्रीदवाय आमुचे ॥7 ॥ कलियुगात भूवरती। औदुंबरी अतिप्रिती। कल्पवृक्ष तो मानवासाठठ्ठ। कामधेनू संगमी ॥8 ॥ चिंतामणी साक्षात। गुरूचरण या युगात। भुवनत्रयी दुर्लभ वस्तु। प्राप्त होतसे शरणांगता ॥ 9 ॥ असो श्रोते ऐका आता। पिशा योनी कैसी आता। भानामती भूतबाधा। स्वयं गुरू निवेदिती ॥ 10 ॥ उत्सुक झाले अज्ञानी मन। विनविते रामचरण धरून। कथन करावे प्रितीने। अगणित असूरी प्रकार किती ॥ 11 ॥ असंख्य अगणित असुरीशक्ती। जगी अखंड भ्रमण करिती। मानवप्राण्या भेडसाविती। कर्मगती प्रमाणे ॥ 12 ॥ कितीएक अतृप्त आत्मे। जगी वावरती वायुरूपाने। न दिसती मानवी नयनांनी। परी अचाट शक्ति त्यांची ॥ 13 ॥ ते वारे स्पर्शता मानवा। हतबल जीव सगळा। पिळून काढतो प्राण्या। जर्जर करितो कुडीस त्या ॥ 14 ॥ अवीसपाणी न पचू देतो। आपणचि सारे भक्षितो। आश्चर्यचकीत कृती करतो। मती खुंटते मानवाची ॥15 ॥ भूतपिशा अनिवार। त्यांची सत्ता जगी प्रबळ। भिवीस भिवीस त्यांचे प्रकार। पिशा विश्वचि निराळे ॥ 16 ॥ त्यांचा वंश वायुरूप। मानवाप्रमाणे उपभोग देख। वंशवृध्दी अह्श्यपणे। भ्रमण करिती वेगाने ॥17 ॥ द्वादश वर्षे आयुष्य क्रमणे। मुक्ति मिळे कर्माप्रमाणे। दुष्कृत्य करीता वेगाने। जिंद योनी प्राप्त होतसे ॥ 18 ॥ जिंदयोनीत पिशा। भ्रमण करीतो144 वर्षेपर्यंत। बळी घेतो एकशत। मानवा छळितो चिवट तो ॥ 19 ॥ पिशा योनी अधिपती। भयानक अचाट योनी ती। अक्राळविक्राळ स्वरूपे ती । भय वाटे सर्वांना ॥ 20 ॥ त्यात असती प्रकार। काही पवित्र आत्मे साकार। मुक्त होण्यासत्वर। गुरूकृपा शोधिती ॥ 21 ॥ नाम राशिप्रमाणे। बाधा होतसे मानवाकारणे। कर्मभोगा प्रमाणे। मुक्ति मिळे आत्म्यास ॥22 ॥ लक्ष चौ:यांशी योनी फिरूनी। जन्मा येतो मानव प्राणी। भव चक्राच्या फे:या फिरूनी। भवडोही बुडतो पहा ॥ 23 ॥ हा विषयअसे गहन। अर्थ न कळे मानवाकारण। काही इच्छा अतृप्त राहून। मृत्यू येतो मानवा ॥ 24 ॥ आत्मा नसे मोक्षगती। भ्रमण करितो भूवरती। मानवा छळीतो सहजगती। काय सत्ता अघोरही ॥ 25 ॥ कलियुगी गुरूसत्ता। एक ही असे प्रबळ देखा। विाधिपती तोचि देखा। चिंता तया सर्वांची ॥ 26 ॥ पुर्वसुकृत पदरी असता। भाग्योदय जवळी येता। मुक्ति मिळे गुरूचरणी देखा। योगायोगे सहजचि ॥ 27 ॥ पिशा योनीचे दैवत देख। भैरव वेताळ म्हसोबा एक। अरण्यी राहती सुरेख। मांत्रिक तयास आराधिती ॥ 28 ॥ पिशा काढण्या अंगातील। मंत्रशक्ति असे प्रबळ। काही पिशाच होतात। मंत्रशक्तिने भयभीत ॥ 29 ॥ मंत्रशक्तिने तयास। मुक्ति न मिळे आत्म्यास। धरल्या कुडीस सोडून देती। मंत्राशक्तिच्या प्रभावे ॥ 30 ॥ पिशा विातही देखा। वर्णभेद जाती अनेका। गुणस्वभाव व्रुच्रता। त्रयमूर्तिच जाणिती त्या ॥31 ॥ उनीच प्रकार। जातीप्रमाणे उपचार। दत्तात्रेयच जगी आधार। मार्गदर्शना करिती हो ॥ 32 ॥ अश्लील कुश्चळ अमंगळ। अपवित्र अशौ नाही निर्मळ। त्या स्थानी भूतपिशा। वसती करिती आनंदे ॥ 33 ॥ अमावस्या पौर्णिमा माध्यान्ह काळ। मध्यरात्री कीर्र वेळ। तिन्ही सांज सायंकाळ। पिशा जागृत या काळी ॥ 34 ॥ निंब चिंच पिंपळ। वटवृक्ष बोर बाभूळ। या वृक्षढोलीत नित्यकाळ। वसतिस्थाने भूतांची ॥ 35 ॥ गर्भवती ॠतुस्नात। वधूवर बालक नवजात। प्रसूत स्त्री सव्वा महिन्यात। ऐशापरी नवबटू सत्य ॥ 36 ॥ हळद लाविल्या अंगास। ओल्या मोकळया केसासहीत। वरील कुडी आवडती पिशाश्चास। भूतबाधा त्वरीत तया ॥ 37 ॥ गुरू दत्तात्रेयांचे सहवासाने। रामरक्षा नामस्मरणे। शिवलीलामृत ग्रंथप=णी। गुरूचरित्र पारायणी ॥ 38 ॥ पोळती पिशा क्षणात देखा। न मिळे थारा राहण्यास। एखाद्या पवित्र आत्म्यास। गुरूहस्ते मुक्ति मिळे ॥39 ॥ ऐसे दुर्धर प्रसंग अनेक। मानवावरी येता त्वरीत। रामचंद्रांनी केले मुक्त। कितीएक पिशा भूवरी ॥ 40 ॥ प्रकार पिशा बाधेचे। भिवीस भिवीस आजवरी साचे। ग्रंथी वर्णिता सविस्तर। विस्तारेल ग्रंथ वृक्षापरी ॥ 41 ॥ ऐसे वदले गुरू स्वमुखे। धरा हो चरण सद्गुरूंचे। रक्षील संकटी गुरूनाथ। भवसागरी सृजन हो ॥ 42 ॥ इति श्रीरामगुरूरित्र। परिसा रसाळ इक्षुदंड। विनवी दासी अखंड। त्रयोदशो। ध्याय गोड हा ॥43 ॥
॥श्रीगुरूदत्तात्रेयार्पणमस्तु ॥
॥अ व धू त चिं त न श्री गु रू दे व द त्त ॥
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