श्री गणेशदत्तगुरूभ्यो नम :
श्रीरामगुरू चरित्र
॥ अध्याय 16 वा ॥
॥श्रीगणेशाय नम :॥ श्रीसरस्वत्यै नम :॥श्रीगुरूभ्यो नम :॥जय परब्रह्यस्वरूपापरमेरा। जगचालका विंभरा। लीला तुझी वर्णावया। बुध्दी देई मज आता॥1॥अजाण मी मंदमति। नाही ज्ञान शास्त्रोक्तरिती। गुरूस्तवनास देई स्फुर्ति। दीनानाथा दयाळा॥2॥गुरूकृपेचे महिमान। थोर जगती असे जाण। शुध्दभक्ति श्रध्देविण। मोल मानवा कळेना॥3॥जगचालकाचे विधीसूत्र। कोणास न कळे ते तंत्र अगाधची। गुरू जरी अविरत भ्रमति। परी स्थिर जेथे ती स्थानमहती॥4॥1973 साली। माघमासी शुभवारी। वास्तुशांती सदनाची। निश्चित केली श्री गुरूंची॥5॥प्रात:काळी शुभसमयी। प्रवेश केला दत्तकृपा सदनी। स्थिर राहण्या त्या स्थानी। वास्तुशांती केली असे॥6॥मंगलकार्य नूतन सदनी। व्हावे ऐसे जाणोनी। व्रतबंधन करिती सदनी। जयंत आणि श्रीकांताचा॥7॥ ब्राम्हणकुळी जन्म होता। व्रतबंध विधी साचा । यज्ञोपवीत धारणाचा। शास्त्रआज्ञा असे हो॥8॥गायत्रीमंत्र भूवरी। जागृत शक्ति सर्वाठयी। रक्षी मानवा संसारी। विजयी करी जीवनात॥9॥गायत्री मंत्राचे महात्म्य। वदती थोर ॠषि साक्षात। शास्त्र असे नित्य वदत। पितृमुखेपरिसावी॥10॥प्रथम गुरू पिता तोचि। पितृआज्ञा पालन करी। पितृसेवा नित्य करी। पुत्र तोचि श्रेष्= जगी॥11॥व्रतबंधनापासून। गायत्रीमंत्र अहर्निशी। स्नानसंध्या नित्यव्रत। ब्रम्हचर्य आश्रमी॥ 12॥कलियुगी मानव निती। भ्रष्ट विचार माजे जगती। कालगती बदलली रिती। स्नानसंध्येसी वेळ नसे ॥13॥म्हणोनी सांगती गुरूभक्ता। नामस्मरण नित्य देखा। प्रपंची असावी दक्षता। शुध्दभाव =ेवावा॥14॥तरूनी जाण्या भवसागरी। उपाय सोपा भूवरी।गुरूसेवा निरंतरी। भक्तिभावे करावी॥15॥ प्रथम व्रतबंधनाचा हेत। सद्गुरूंच्या मनात। नूतनगृही मंगलकार्य। प्रथम करणे असे का॥16॥ यास एक कारण। वडिलांचे पुण्यतिथी कार्य। वर्षश्राध्द प्रथम जाण। पुढे होते अल्पकाळी॥17॥ऐसे कथिले शास्त्रपुराणे। आत्म्यास मुक्ति पिंडदाने। म्हणोनी श्राध्दपक्ष करोनी। ब्राम्हण तृप्त करावे॥18॥आत्मा असे अमर। इच्छापूर्ती सत्वर। जन्मा येतो भूवर। मानवप्राणी पुन्हा पुन्हा॥19॥मृत आत्म्यास तृप्त करण्या। पिंड दान करिती जाणा। आत्मा गुप्तरूपे भोजना। श्राध्ददिनी येतसे॥20॥ऐसा करूनी विचार। मंगलकार्य साचार। नुतन गृह साकार। मंत्रोक्त विधीने पुनीत॥21॥यापुढील कथा सुरस। ऐका श्रोते सावकाश। कैसे सांभाळीती भक्तांस। त्रयमुर्ति भूवरी॥22॥भक्तरक्षणार्थ जगती। सत्पुरूष अवतरती। सगुणस्वरूप जाणण्याप्रति। दिव्यह्ष्टी पाहिजे॥23॥ पुर्वसुकृत संचितावीण। न मिळे भूवरी गुरूचरण। योगायोग येता जुळून। भाग्योदय होत असे॥24॥ याचा कैसा वृत्तांत। परिसा श्रोते सावचित्त। परम कृपाळू गुरूदत्त। कैसे भेटती भक्तांशी॥25॥ मानवप्राणी अवघे प्रवासी। कोठठ्ठले कोण रहिवासी। याचा थांग पूर्व कर्माशी। त्रयमुर्तिच जाणती॥26॥ प्रिय कन्या गत जन्मीची। बुडत होती भवडोहांती। त्रयमुर्ति तियेशी रक्षती। पूर्वसुकृत जाणूनी॥27॥ बालपणापासूनी। गुरूभक्तिची ओढ जाण। पारायण पुजा गुरूदर्शन। आनंद चित्ता होतसे ॥28॥ अध्यात्माची आवड। परिमाया मोहाची झापड। त्यास अज्ञानाची जोड। प्रपंच फास गळा॥29॥परि गुरूकृपा वंशपरंपरी। नाही अडकली प्रपंच दुरी। गुरू सोडविती वेळोवेळी। मार्गदर्शना करूनी॥30॥पूर्वसंचीत कैसे घोर। पतीस छळत असे अपस्मार। अंतरी व्याकुळ निरंतर। प्राण पतीचे सुखी होण्या॥31॥भाग्योदय आला जवळी। भेटली सारी भक्त मंडळी। गुप्तरूपे गुरू वसती। स्थान मिळे तेचि राहण्या॥32॥व्याधी बळावली पतिशरीरी। काही सुचेना अंतरी। निश्चय करूनी निर्धारी। गुरूसेवा व्रत करी॥33॥शात पूजा केली गुरूमंदिरी। प्रतिमा आणली बरोबरी। साधने =ेवण्या समोरी । सगुण स्वरूप सद्गुरूचे॥34॥परि काय घडला चमत्कार। ऐका श्रोते तुम्ही चतूर। प्रतिमा हरविली दुकानावर। शोक चित्ता बहू वाटे॥35॥रामचंद्र गुरूंची किर्ती। कर्णोपकर्णी ऐकीली होती। धाव घेतली गुरूसदनी । शांती मिळावी म्हणूनी॥36। तो होता शुभवार। गुरू त्रयमुर्तिचा गुरूवार। स्वयेच सद्गुरू साकार। प्रगटती भक्त दर्शना॥37॥शरण जावूनी गुरूचरणा। प्रश्न केला सत्वर जाणा। का देवा वियोग घडला। प्रतिमा कैसी हरविली॥38॥काय वदले सद्गुरूनाथ। ऐका तुम्ही प्रिय भक्त। जगी आमुचे स्वरूप सत्य। गुप्त रूपे कलियुगांत॥39॥नाही आम्ही हरवलो। भक्त ।दयी स्थिरावलो। स्थिर आमचे निवासस्थान। भक्त ।दय मंदिरात॥40॥खेद न करी तिळभरी। प्रतिमा घेवूनी दुसरी। नित्य पुजनी =ेवावी। ऐशारिती बोध केला॥ 41॥कैसी पटविली खुण। गुरूकृपा अमोल जाण। सावध राही मानव प्राण्या। माया डोही बुडु नको॥42॥ गुरूचरणी स्थिर होई। गुरूवचनी भाव =ेवी। गुरूभक्ति अखंड व्हावी। हिच धरी कामना॥43॥तुज न काही अशय जगी। गत जन्मीचे भोग भोगी। मानव प्राणी अभागी। बोल =ेविशी नशिबाशी॥44॥दिनदयाळू सद्गुरूनाथ। कैसे सांभाळती आपले भक्त। याची कथा परम सुरस। पुढील अध्यायी श्रवण करा॥45॥इति श्रीरामगुरूचरित्र। परिसा रसाळ इक्षुदंड। विनवी दासी अखंड। षोडषोध्याय: समाप्त :॥46॥॥श्रीगुरूदत्तात्रेयार्पणमस्तु॥ शांती शांती शांती: ॥
॥श्रीगुरूदत्तात्रेयार्पणमस्तु ॥
॥अ व धू त चिं त न श्री गु रू दे व द त्त ॥
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