श्री गणेशदत्तगुरूभ्यो नम :
श्रीरामगुरू चरित्र
॥ अध्याय 17 वा ॥
॥।श्रीगणेशाय नम :॥ श्रीसरस्वत्यै नम :॥श्रीगुरूभ्यो नम :॥जय जय ब्रह्यस्वरूपागुरूदेवा। रूद्ररूपा महादेवा। विष्णुरूप सगुणदेवा। सगुण निर्गुण एकची॥1॥ब्रम्ह स्वरूपाची महति। अलौकिक आहे जगती। ते जाणण्या देई स्फुर्ति। तुची जगी भक्तत्राता॥2॥त्रिभुवनी तुझीच सत्ता। उध्दरण्या प्रिय भक्ता। मानव रूप धरीयीले। गुप्त राहुनि सदनी॥3॥मार्गदर्शन भक्ता निशीदीनी। कृतार्थ भक्त जीवनी। धन्य धन्य गुरूसत्ता। माय बापा दत्तात्रया॥4॥दत्तात्रयांचे भक्त रक्षण। अखंड आहे भूवरी जाण। मंदमती मानवाने। वर्णन कैसे करावे॥5॥सद्गुरूनाथा देवराया। मती देई दत्तात्रया। तव सत्तेची अगाध किमया। वर्णन करण्यास स्फुर्ति दे॥6॥पुर्वजन्मीचे सुकृत। कैसा भाग्योदय सत्य । याची कैसी प्रचित । भक्त रक्षण ब्रिद्र हे॥7॥लक्ष चौ:यांशीयोनी फिरूनी। जन्मा येता मानव प्राणी। वासना तृप्ती कारणी। कर्मभोग भोगतो॥8॥ याचे कैसे प्रत्यंतर। प्रत्यक्ष घडले सत्वर। त्याचे वर्णन सविस्तर। परिसा श्रोते एकचिते॥9॥ जन्मोंजन्मीचे ॠणाणूबंध। पूर्वसुकृत कर्मजाण। भोग वासना संपल्याविण। गुरूदर्शन होणे नसे॥ 10॥गुरूवाहती सर्व चिंत्ता। दिन रजनी रक्षिती भक्ता। गुरूकृपा छत्र शिरी असता। काय उणे या भूवर॥11॥ गुरूने एकदा पदरी घेता। चिंत्ता रहीत करीती भक्ता। याचा वृत्तांत परिसा आता। सावचित्त श्रोते तुम्ही॥ 12॥जगी काही सत्पुरूष। राहती वेडगळ वेषांत। त्यात शरीर व्याधी निमित। गुप्त राहण्या जगती॥13॥तुळजा भवानीचे भोपे सेवक। त्यांचा वंश राजूर ग्रामात। गुरूकृपा वंशपरंपरागत। मूळ पुरूष दत्तसेवक॥ 14॥दत्तसेवेचा प्रसाद। साक्षात सदनी प्रकटले दत्त। विभूती देवूनी सतीस। पुत्र प्रसाद सदनी दिला॥ 15॥परि याची भ्रांत गणगोता। मानवी व्यवहार कैसा देखा। विसर पडला त्वरीत निका। माया डोही बुडतो मानव कैसा॥16॥दत्तात्रय नामे पुत्र संतान। नारायण तयाचा नंदन। त्याचे कैसे संचीत जाण। त्रयमुर्ति करीती रक्षण॥17॥लहानपणापासोन। दत्तोपासनेची आवड मना। भजनी पुजनी आवड । याचा वृत्तांत परिसावा॥18॥प्रात:काळी भूपाळी गायना। रात्रीस शेजारती प्रदक्षिणा। माध्यान्ह समयी गुरूचरित्र वाचन। ऐसा नियम जीवनी॥19॥कर्म भोग गत जन्मीचा । अपस्मार छळीत असे जिवा साचा। तो होता भोग प्रारब्धाचा। परि खेद मना मुळी नसे॥20॥शरीरी पडती असंख्य घाव। अलोट होई रक्त प्रवाह। प्राणांतीक यातना होती जिवा। परि रक्षिती गुरू तया॥21॥राही तीन उपासनेत। बोलून =ेवि कोणा सत्य। भोग भोगी आनंदात। कर्म गत जन्मीचे म्हणुनी॥22॥ आप्तजना होती भ्रांत। ते म्हणती हा वेडा घराण्यात। निश्चिंत राहतो सदोदीत। कैसे होईल तयाचे॥ 23॥तयासी न कळे हे सत्य। दत्तगुरू त्याचे रक्षणार्थ। पालन पोषण करीती। गुप्तरूपे या जन्मी॥24॥मी पणाचे अहंकाराने। मानव बुडतो गर्वाने। दोष दुस:याचे पाहणे। महापाप जाणावे॥25॥झापड माया मोहाची। बुडुन न राहतोभवडोहांती। आपणची शहाणे म्हणविती।श्रेष्= ही कालगती॥26॥वासना गतजन्मीची अपुरी। तीन तपे राहूनी संसारी। भोग वासना संपविल्या। तरूनी गेले भवसागरी॥27॥ प्रपंची राहीले निरासक्त। नाही बुडाले माया मोहात। जैसे कमल पंकात। निष्कलंक राहते॥28॥ लक्ष्मीनारायणा साविीसध=ेविले। जनलोक सुखविले। तैसेच नारायणे केले। आप्तजना सुखावले॥29॥ प्रपंच जीवन आचरतांना। काय म्हणती ते आप्तजना। सांभाळी आम्हा गुरूराणा। हे न कोणा कळू दे॥30॥सत्चित्त् आनंदी स्वरूपी रंगले। गुरूभजनी तीन झाले। साधु संताचे पुजन केले। जीवनमुक्त होण्यास॥31॥ दान धर्म अवीसदान। मातापित्याचे आज्ञापालन। वडील मंडळींचा सन्मान। आनंद जीवा तयांचे॥32॥ सात्विक गुण अंगी असती। परि खुण ओळख कोणा न पटली। व्याधी शरीरी बळावली। आप्त मंडळी त्रस्त झाली॥33॥चिंताक्रांत पिता सदनी। व्यावहारीक यज्ञ करूनी। परि व्याधीग्रस्त जीवनी । नारायण भोगी आनंदाने॥34॥व्याधीने ना शरीरा सोडीले। वेडांच्या इस्पितळात =ेविले। निरोगी पुत्र होण्यास । यत्न सारे पिता करी॥35॥परि खेद नसे मना। नित्यनेम उपासना। नेम तेथेही चालला। ऐसा असे क्रमजिवना॥36॥होती पोटी संतती। पत्नीस म्हणे खेद न करी चित्ती। गुरूमहाराज तुम्हा सांभाळती। चिंतन त्यांचे जीवनी करी॥37॥आला भाग्योदय जवळी। गुरूकृपेची नवलाइ । प्रत्यक्ष भेटती त्रयमुर्ति। धन्य त्यांचा जन्म जगी॥38॥कैसा होता योगायोग। न कळे गुरूकृपेचा थांग। गुरूकृपा सागर अथांग। त्यांचे माप कोण करी॥39॥मानवा न कळे त्यातील गुह्य। यातना होती असह्य। बोल नशिबा =ेवून। गुरूचरणा प्रार्थीत असे॥40॥धर्म पत्नीची पूर्व पुण्याई। भेटली तियेशी गुरूआई। मार्गदर्शना लवलाही। धिर जीवनी वाटला॥41 ॥आली रामचंद्र सदनी त्वरीत। प्रश्न करीत समाधीत । काय वदले सद्गुरूनाथ। ऐका श्रोते सृजन हो॥42॥ही नाही शरीर व्याधी । कर्मभोग जीवभोगी। को=ेही न जाई येई। सुखी होशील संसारी॥43॥सेवा औदुंबराची करी। सांभाळी तुम्हा संसारी। पती रक्षणा सत्वरी। आम्ही पाठठ्ठ जागृत॥44॥विभूती दिली ग्रहण करण्या । गोमूत्र मिश्रीत जल स्नान। ती होती देह शुध्दी जाणा। तपश्चर्येस जाण्याची॥45॥गुरूवचनी राहूनी स्थिर। उपाय करी साचार। पती सुखी होण्यास। चिंताक्रांत जीवनी॥46॥ती परीक्षेची खरी वेळ। कर्म भोगी घाली गोंधळ। पिशाश्च बाधा घोर। पतिदेवाझाली असे॥47॥त्रिकालज्ञ रामचंद्र। त्रयमुर्ति साक्षात। नव्हते जरी अकोल्यात। दिव्यह्ष्टी जागृत॥ 48॥गतजन्मीची पुण्याई। गुरूबंधू होते जवळी। धीर देण्या ते वेळी। त्वरीत गेले नागपूरी॥49 ॥ कथिला वृत्तान्त गुरूस। विभूती आणिली त्वरीत। उपाय विचारी गुरूस। पिशा मुक्तीकारणे॥50॥पिशा होते पुण्यवान। त्यास मुक्त करी योगीराणा। त्रिकालज्ञ त्रयमुर्ति जाणा। नारायणा निमित्त =ेविले॥51॥पंधरा दिवसपर्यंत। पिशा छळी पतीस। चिंताक्रांत भयभीत। गणगोत व्याकुळ सदनी॥52॥केले नवनाथ पारायण। उतारा कथिला सद्गुरूंनी। गुरूबंधू सारे करिती। एकनिष्= राहूनी गुरूवचनी ॥53॥पतिस रक्षिले रामचंद्रांनी। नागपूरी राहूनी। ऐसी रामचंद्राची कृपामहति। वर्णू कशी मी मंदमति॥54॥रामचंद्रा आपुली धन्य कृति। अनमोल आपुला अवतार जगति। अजूनपर्यंत जीवनांत। सांभाळीत असे पतिदेवा॥ 55॥गुरूशिष्य गुप्तरूपे। व्यवहारी वागती कैसे। मानवा न कळे सत्य। दत्तात्रयांचे गुप्तकार्य॥56॥ मायामोहाची भ्रांत। मानव बुडतो भवडोहात। कैसा घडला जीवनी प्रसंग। कोणा न कळलेअघटित॥ 57॥गुरूपुजा शात जीवनी। करंजनगरी निघाले पतिपत्नी। तो होता भाग्यकाळ। कोणा न कळले सकळ॥ 58॥गुरूदर्शन घेवुनी सत्वर। घट्ट धरिले गुरूचरण। प्रसाद दिला सद्गुरूंनी। ग्रहण करूती आनंदाने॥59॥ काय वदति तयास। ऐका श्रोते सावकाश। प्रसाद दिला आम्हा तुम्ही। विभूती द्यावी संरक्षणी॥60॥विनवी गुरूस नम्र होवूनी। आशिर्वाद आपूले शुभ देवूनि। मार्गदर्शन करी देवा। हाचि वर द्यावा आता॥61॥परी तो गुरूशिष्यसंवाद। न कळला तो कोणा वाद। गुप्तरूपे गुरूप्रसाद। तप आचरणा निघाले॥62॥माध्यान्ह रात्री शनिवार। दशमी तिथी शुभसाचार। गुरू करिती आज्ञा थोर। तपाचरणा जाण्यास ॥63॥भजनी मंडळी गुरूमंदिरी। गुरूभजनी रंगली। नारायण निघाले तेथूनि। न दिसले कोणा अजुनी॥64॥गणगोत झाले चिंताक्रांत। उपाय केले सारे त्वरीत। त्रयमुर्ति पतिस सांभाळीत। जीवनी गुरू धीर देती॥65॥पिता विचारी रामचंद्रासी। बरे वाईट काय नशिबी। सत्य कथावे गुरूमाऊली। असह्य होती यातना॥66॥काय वदती राम त्याशी। वाईट न आणावे मानसी। योग्यरिती सद्गुरू रक्षिती। जीव असे सुरक्षित॥67॥ गुरूवचनी स्थिर होवूनी। जीवनक्रम चालला अजुनी। गुरूसेवा व्रत नियमी। रामचंद्र नित्य शांतवी पत्नीस॥68॥धन्य धन्य हो गुरूदेवा। दीन कन्येस सांभाळा। धीर देवूनी वेळोवेळा। सौभाग्यरक्षण करिती स्वये॥69॥अगाध महिमा गुरूकृपेचा। गुप्तरूपी रामचंद्राचा। त्रिभुवनी अवतार धन्य हा। नित्य जागृत भक्तरक्षणा॥70॥इति श्रीरामगुरूचरित्र। परिसा रसाळ इक्षुदंड। विनवी दासी अखंड सप्तदशोध्याय: गोड हा॥71॥
॥श्रीगुरूदत्तात्रेयार्पणमस्तु ॥
॥अ व धू त चिं त न श्री गु रू दे व द त्त ॥
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