श्री गणेशदत्तगुरूभ्यो नम :
श्रीरामगुरू चरित्र
॥ अध्याय 19 वा ॥
॥श्रीगणेशाय नम :॥ श्रीसरस्वत्यै नम :॥श्रीगुरूभ्यो नम :॥हे सर्वेरा जगदीशा। विंभरा परमेशा। नीलकंठ उमामहेशा। करीते तुम्हा प्रार्थना॥1॥हे त्रिगुणात्मका। सर्वेरा जगदात्मका। परब्रम्हा तू विष्णुरूपा। रूद्ररूप तू गिरीजावरा॥2॥दत्तस्वरूप तू अत्रिसुता। गुप्तरूप धरूनी देखा। त्या स्वरूपाची सगुणता। वर्णण्या स्फुर्ति दे आता॥3॥श्रीरामचंद्रा भक्तत्राता। शरण तुम्हा मायबापा। औदुंबर वृक्षाची महति देखा। कथन करावी भक्तांस॥4॥काय कथीले गुरूचरित्री। हिरण्यकश्यपू नामे भूपति। भूवरी माजला अति। सुरईरा छळीतसे नित्य॥5॥विष्णु चिंताक्रांत होती। काय करावे जनसुखासाठठ्ठ। तो जरी होता असुर। तरी सद्भक्त होता थोर॥6॥सगुणभक्ति निरंतर। शिवभतीचे तेज फार। आळवूनिया शंकरा। प्रसवीस ईरा केले असे॥7॥तो जरी होता राक्षस। भंयकर अंगी काळकूट विष। पोटी जन्मला सद्भक्त । प्रल्हाद नाम तयाचे॥8॥कैसा भक्तिचा महिमा थोर। देव भक्ताचा होतो चाकर। भक्तइच्छा पुरविण्या निरंतर। होत असे ईरी अवतार॥9॥शंकरे दिला त्यासी वर। तो मातला भूमीवर। काळकूट विष भयंकर। अंगी भिनले असुराचे॥10॥प्राणांतिक यातना भक्ता। प्रल्हाद नामे सेवका। रक्षण करण्या तयाचे देखा। नरसिंहरूप विष्णु धरी॥11॥नारसिंहरूप भयंकर। अक्राळविक्राळ थोर। ओळखी प्रल्हाद निरंतर। आनंद दर्शनीत्यासझाला॥12॥स्तंभामधुनी जन्म झाला। गगनी मेघ कडाडिला। हादरले भूमंडळा। नरसिंहरूपे भयंकर॥ 13॥विष्णु तेथे प्रकटले। असुरा आडवे पाडिले। समोरी मांडीवरी घेतले। नखे रोउनी ज=रा विदारीले ॥14॥फाडीले आतडे सत्वर। ते कालकुट विष भयंकर। नारसिंह शरिरी भिनले। दाह भडकला शरीरी॥15॥आग झाली सर्वांगी। लक्ष्मी चिंताक्रांत स्वर्गी। शोधण्या आली भूमंडळी। शांत करण्या नारसिंह॥16॥औदुंबर वृक्षाची फळे शीतल। घेउन निघाली लक्ष्मी सत्वर। विषदाह शमविण्या निरंतर। नारसिंहाचा ते वेळी॥17॥नखे रोविता फळात। दाह शांत झाला त्वरीत। नरसिंह होउनि आनंदित।आशिर्वाद वदले लक्ष्मीकांत॥18॥आशिर्वाद परिसा सावचित्त। औदुंबर वृक्ष भूतलात। वर दिधला औदुंबर वृक्षासी। पुष्प न दिसता वृक्षासी॥19॥सदासर्वकाळ सफळ तू राहसी। सदा शीतल तु असशी। औदुंबर वृक्ष भूतलवासी। कलियुगी कल्पवृक्ष हा॥20॥कलियुगात जनकल्याणी। याचिकारणे सद्गुरूंनी। वास केला ते साविीसधानी। ध्यानस्थ बसती गुरू तेथे॥21॥जे जन सेविती औदुंबरा। शुध्दभाव =ेवुनि अंतरा। भक्तिभावे पूजिती वृक्षवरा। ते जन जाती पैलतीरा॥22॥शरणांगताचे पापक्षालन। करिती कृपाळू गुरूराणा। घोर व्याधि हरणार्थ सत्य। औदुंबर सेवा करावी नित्य॥23॥औदुंबर सेवेची फलश्रुती। श्रवण करावी गुरूमुखी। गुरूभक्ति श्रेष्= जगी। वर्णन कैसे करावे॥24॥जो मानव निरंतर। ताम्रपात्रे शुध्द नीर। औदुंबरा घाली थोर। त्याची फलश्रुती परिसावी॥25॥पापक्षालन घोर त्वरीत। करिती कृपाळू सद्गुरूनाथ। घोर व्याधी हरण सत्य। औदुंबर सेवेने होत असे॥26॥प्रज्ञा वाढते ज्ञान्यांची। आत्मविश्वास येत असे चित्ताशी। अनेक संकटे सोसण्याची। शक्ति मानवा येत असे॥27॥ज्याची वृत्ती चंचल। मना न होउ देई स्थिर। तयाचित्ती एकाग्रता थोर। वृक्षसेवेने होतसे॥28॥कल्पवृक्ष साविीसध्यात। गुरू वसती अहोरात्र। म्हणुनी तेथील परिसर नित्य। शांत शीतल राहतसे॥29॥त्या सविीसध राहता मानव। शरीरदाह मानसिक ताण। शांत होण्या मदत होई। सांत्वन गुरूआई नित्य करी॥30॥जो का असेल व्याधीग्रस्त। त्या श्रध्दा असावी नितांत। एकनिष्= =ेवूनि चित्त। सेवा करावी वृक्षाची॥31॥ कल्पवृक्ष ह्याचे नाव। तो इच्छिले फळ देईल जाण। दिनदयाळू गुरूराणा। तोषविल निश्चितची॥32॥ याची साक्ष गुरूचरित्री। पटवुन देती त्रयमुर्ति। श्रध्दावन्त भक्ताशी। रक्षण करिती गुरूमुर्ति॥33॥एक होता कुष्ठठ्ठ भक्त। श्रध्दा त्याची नितांत। श्री गुरू नृसिंहसरस्वती तयास। आशिर्वाद देवूनी तोषविती॥ 34॥गुरूआज्ञापालन। शिष्य करी निशिदिनी। शुष्ककाष्ठ लागुनी। पाणी घाली भक्तिने॥35॥परि श्रध्देचा महिमा थोर। वृक्ष झाला हिरवागार। तैसे गुरूवचनी धरूनी धीर। श्रध्दाभाव =ेवी निरंतर॥36॥ कल्पवृक्षसेवा करी जो नर। त्यासी पावेल वृक्षराज। कृपाप्रसाद देवूनी आज। शांतवील भक्तास॥37॥या वृक्षाची अगम्य थोरी। वैद्यराज हा भूवरी। विषबाधा दुर करी। पवतीर्थ प्राशिता॥38॥जरी असेल आतडी दाह। शांत करी तीर्थप्रभाव। अग्निमांद्य रक्ताभिसरण। त्वरीत गुणरोग्यालागुन॥39॥परमेर कृपाप्रसादाने। प्रत्येक भागामधुन। वृक्षांत औषधी गुणधर्म। मानवा न कळे हे मर्म॥40॥गुरूमाउली तिथे निरंतर। वास्तव्य करिती भूवर।गुप्तरूपे आजवर। कित्येक भक्ता शांतविले॥41॥म्हणुनी वृक्षसाविीसध्यांत। सेवाव्रत राही प्राण्या नित्य। षडरिपूंचे दमन सत्य। वृक्षसेवेने होतसे ॥42॥ ही आहे गुरूवाणी। असत्य न होई दिनरजनी। त्रिकालज्ञ सद्गुरूंनी। बोध केला भक्तासी॥43॥म्हणुनी वचनी =ेवुनी धीर। सेवा करावी निरंतर। त्याशी फलश्रुती सत्वर। उध्दरतील नरजन्म॥44॥इति श्रीरामगुरूचरित्र।परिसा रसाळ इक्षुदंड। विनवी दासी अखंड। एकोनविशों ध्याय: समाप्त : ॥45॥
॥श्रीगुरूदत्तात्रेयार्पणमस्तु ॥
॥अ व धू त चिं त न श्री गु रू दे व द त्त ॥
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