श्री रामदत्तगुरु चरित्र.....Http://ramdattaguru.org
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श्री  गणेशदत्तगुरूभ्यो  नम  :
श्रीरामगुरू  चरित्र 
  ॥  अध्याय 26  वा ॥

॥  श्रीगणेशाय  नम  :  ॥  श्रीसरस्वत्यै  नम  :  ॥  श्रीगुरूभ्यो  नम  :  ॥  नमो  जगदिशा।  गुरूदत्तात्रया  अविनाशा।  नमन  तुम्हा  त्रिवार  ॥  1  ॥  अनन्य  शरणागतीने।  श्रध्दा  भाव  भक्तिने।  गुरूस  भजता  प्रितीने।  आत्मबोध  प्राप्त  तया  ॥  2  ॥  आत्म  साक्षात्कार  होता।  गुरूरूप  शिष्य  असता।  गुरूपदीची  तन्मयता।  ते  सुख  वेगळेचि  ॥  3  ॥  आमुचे  गूरू  रामचंद्र।  जोगी  सिध्द  तपस्वी  योगीन्द्र।  निजभक्त  संरक्षण  ब्रीद।  कलियुगी  अवतरले  ॥  4  ॥  गुरू  शिष्यानुभव  वृत्तांन्त।  परिसा  तुम्ही  सावचित्त।  गुरूचरणसेवा  व्रत।  माहात्म्य  कथीती  ते  ऐका  ॥  5  ॥  गुरूभक्तिची  किमया।  स्वानुभवावीण  वर्णावया।  क=णि  जगी  जाण  सदया।  दत्तकृपा  अगाध  असे  ॥  6  ॥  गतजन्मीची  पुण्याई।  भेटली  आम्हा  गुरूआई।  घेउनि  बालका  पदरी  पाही।  संगोपन  करीतसे  ॥  7  ॥  जय  जय  करूणाघना।  त्रयमुर्ति  घनश्यामा।  वर्षता  तव  कृपा  आशिर्वचना।  किर्ती  वैभव  पायी  लोळे  ॥  8  ॥  गुरूवायी  भरंवसा।  जो  नर  =ेवी  नित्य  साचा।  त्या  नरा  काय  सा।  चिंता  नुरे  ही  जीवनी  ॥  9  ॥  गुरूवचन  पवित्र।  महामंत्र  अनुग्रह  सत्य।  भक्ति-भावे  जपे  नित्य।  तो  नर  भाग्यवंत  ॥  10  ॥  या  वचनी  =ेविता  भरवंसा।  अनुभव  येईल  गोड  साचा।  गुरूचरण  सेवेचा।  आल्हाद  असे  निर्विकल्प  ॥  11  ॥  गुरूविण  कलियुगात।  दुसरे  दैवत  नसे  जागृत।  भक्तानुभव  ऐकता  नित्य।  गुरूदेवा  मोद  होई  ॥  12  ॥  भक्तमहिमा  श्रवण  करिता।  त्रयमुर्ति  त्रिगुणात्मका।  तुझीया  लीला  अगाध  असता।  वर्णु  कशी  मी  सांग  बा?  ॥  13  ॥  भतजनाची  तन्मयता।  कैसी  वर्णु  वाचे  आता।  स्वयेच  तू  जगत्पीता।  बाल  हट्टा  पुरवितोसी  ॥  14  ॥  तैसा  परी  सदोदीत।  दिनरजनी  भक्तहेत।  पुरविण्या  भक्तमनोरथ।  रामचंद्र  जागृत  असे  ॥  15  ॥  जय  जय  रामा  करूणाधना।  तव  चरणी  मिळे  विश्रामा।  तो  आनंद  द्विगुणा।  कैसा  वर्णु  गुरूराया  ॥  16  ॥  नित्य  प्रात:काळी  नियमाने।  पुजावे  गुरूचरण  भक्तिने।  जीवनमुक्ति  सहजपणे।  भय  नसे  कळिकाळाचे  ॥17  ॥  परि  भक्त  स्वांगे  निर्मळ।  अढळ  श्रध्दा  निश्चळ।  येता  संकट  काळ  जवळ।  दोष  न  द्यावा  कवणाते  ॥  18  ॥  आपुलिया  कर्माने।  भोग  भोगावे  आनंदाने।  वासनापूर्ति  कारणे।  पुनर्जन्म  येत  असे  ॥  19  ॥  म्हणूनि  मानवा  सावध।  न  होई  बा  वासनावश।  अमुल्य  ह्या  नरदेहास।  सत्कारणी  लावी  बा  ॥  20  ॥  वासना  नसावी  प्रबळ।गुरूचरणाची  सेवा  निर्मळ।  भाव  असावा  निश्चळ।  श्रध्दा  गुरूवचनी  अढळ  ॥  21  ॥  गुरूर्बह्या  गुरूविष्णु।  गुरूर्देवो  महेर:।  गुरू:  साक्षात  परब्रम्ह  ।  तस्मै  श्री  गुरूवे  नम:  ॥  22  ॥  ह्या  वचनाची  महति।  वेदवाये  पुराणांती।  थोर  ॠषिमुनि  गाती।  याचा  प्रत्यय  भक्ताप्रति  ॥  23  ॥  त्रयमुर्ति  कलियुगात  गौप्यरूपे  नांदतात।  परमानंद  भक्ताप्रत।  साक्षात  रामदर्शनात  ॥  24  ॥  मर्यादापुरूषोत्तम  या  जगी।  गुरू  रामचंद्र  दत्तयोगी।  कोटयानुकोटी  पुण्ययोगी।  गुरू  भेटले  आम्हांसी  ॥  25  ॥  गुप्तरूपे  राहणे।  भक्तामार्ग  दाखविणे।  शरणांगता  उध्दरणे।  अवतार  असे  हा  यति  ॥  26  ॥  दत्तचरित्र  ऐकता  पढता।  सुख  होते  भक्तचित्ता।  मना  वाटे  प्रसवीसता।लीला  गुरूची  श्रवण  करीता  ॥27  ॥  गुरू  दत्तात्रया  जग़ाीवना।  संकटी  रक्षी  दया  घना।  तुज  विण  कवणा  करूणा।  येईल  बा  गुरूराया  ॥  28  ॥  अनन्य  शरण  तव  चरणी।  तव  कृपेची  अगाध  करणी।  गुरूत्रयमुर्ति  सगुणी।  धावा  ऐकता  श्रवणी  ॥  29  ॥  गुप्तरूपे  प्रतीपाळी।  कैशा  रिती  सांभाळी।  त्याशी  त्यास  मायाजाळी।  प्रेमामृत  वेल्हाळी  ॥  30  ॥  भक्ता  प्राशवी  आनंदे।  त्याची  गोडी  अखंडीता।  वर्णु  कैशी  भगवंता।  तुझी  कृपा  अगाध  बापा  ॥  31  ॥  तुझा  तूंच  समर्थ  बा।  स्वये  स्वयंभू  भक्तासाठठ्ठ।  अवतरलासी  जगजेठठ्ठ।  परी  मानवा  शेवटी  ॥  32  ॥  गुरळ  माया  मोहाची।  त्रिगुणातीत  परमात्मा।  अंती  नेईल  मुक्तिधामा।  सेवक  त्याचा  निष्काम  ॥  33  ॥  भक्तिबळे  मार्ग  चढी।  मार्ग  दिसण्या  जरी  सोपा।  आचरण्या  कठठ्ठण  मोठ।  श्रध्दाबळे  भत  निका  ॥  34  ॥  जय  जय  रामा  सुखकंदा।  सतिानंदा  अभेदा।  निवारी  भक्त  आपदा।  शांती  देई  अंती  त्या  ॥  35  ॥  गुरू  मार्गदर्शक  निश्चित।  मार्ग  क्रमावा  लागे  भक्ताप्रंत।  गुरू  होवुन  सारथी।  सारथ्य  करी  भक्ताचे  ॥  36  ॥  परी  भक्त  पाहींजे  श्रध्दावान।  गुरू  पदी  निष्ठ  जाण।  आपत्ती  येता  कठठ्ठण।  कर्मगती  श्रेष्=  जाणे  ॥  37  ॥  दुख:गती  प्राप्त  होता।  खेद  नसावा  चित्ता।  तैसेची  सुख  मिळता।  अत्यानंद  नसावा  ॥  38  ॥  सुख-दु:ख  समान।  उन  सावली  निर्सग-नियम।  मानवा  न  चुके  गती  जाण।  गुरू  त्यासी  रक्षितसे  ॥  39  ॥  जय  जय  परात्परा  गुरूवर्या।  सर्व  जगा  उध्दराया।  तव  अवतार  करूणालया।  भक्त  रक्षण  ब्रीद  हे  ॥  40  ॥  भक्तासाठठ्ठ  जगवीसाथा।  काय  न  करी  भक्त  तात।  स्वये  स्वयंभु  जागृत।  अनेकरूपे  घेतसे  ॥  41  ॥  वृध्द  एक  भक्तराज  ।  प्रश्न  करीती  सद्गुरूस।  सांत्वन  त्याचे  करण्यास।  काय  वदति  गुरू  ऐका  ॥  42  ॥  औदुंबरतळी  आमुचा  वास।  रामचंद्र  सरस्वती  नाम  खास।  ह्या  अवतारी  कलियुगात।  जागृत  आम्ही  आहे  बा  ॥  43  ॥  ते  रूप  ओळखण्या।  दिव्यह्ष्टी  पाहीजे  प्राण्या।  पुर्वसुकृत  पुण्याविणा।  ही  प्राप्ती  होत  नसे  ॥  44  ॥  अनुभवाविण  बोल।  जगी  असती  बा  फोल।  नित्य  सावधान  मनी  तोल।  जागृत  असावे  व्यवहारी  ॥  45  ॥  वेळोवेळी  अनेकदा।  याचा  उलगडा  होऊनि  देखा।  मानव  प्राणी  निका।  न  ओळखे  त्या  गुप्त  रूपा  ॥  46  ॥  हा  संसारसागर।  ज्यावरी  गुरूकृपा  थोर।  तरूनि  जाण्या  भवपार।  मानवा  सुलभ  ही  नौका  ॥  47  ॥  रामनाम  नौका  प्राण्या।  भवसागर  तरूनी  जाण्या।  शुध्द  भक्ती  श्रध्दे  विणा।  अनुभव  नसे  प्राण्या  ॥  48  ॥  फलरहित  अपेक्षेने।  गुरूसेवा  निर्धाराने।  अखंड  अविरत  भावे।  करावी  बा  नित्य  जीवा  ॥  49  ॥  जीवा  नसावी  अभिलाषा।  शोक  नसावा  दु:खाचा।  नित्य  आत्मसुखाचा।  निजानंद  भोगावा  ॥  50  ॥  तो  आनंद  अपरंपार।  न  दिसे  कवणा  थोर।  स्वयेच  भोगतो  निरंतर।  निजभक्त  आनंदे  ॥  51  ॥  तो  आनंद  परमानंद।  र्स्वगसुखाहुनि  थोर।भक्तास  तो  आनंद।  वाचे  न  वर्णवे  ॥  52  ॥  त्यासाठठ्ठ  निजांगे  भक्त।  शुध्द  पाहिजे  निरासक्त।  निराभिमान  सदोदीत।  वृत्ती  स्थिर  श्रीगुरूचरणी  ॥  53  ॥  भजनी  रमता  नित्य।  सर्व  सुख  मोक्षप्रद।  नित्यानंद  सदोदीत।  अंतर्मन  जागृति  ॥  54  ॥  अंतर्मन  जागृत  होता।  बाह्य  मना  ये  आवरता।  आपोआप  स्थिरता  चित्ता।  गुरूकृपे  होत  असे  ॥  55  ॥  यापुढील  वृत्तान्त।  परिसावा  सावचित्त।  श्रोते  सृजन  भाग्यवंत।  गुरूलीलाममृत  श्रवण  करा  ॥  56  ॥  इति  श्रीरामगुरूचरित्र।  परिसा  रसाळ  इक्षुदंड।  विनवी  दासी  अखंड।षडविंशोध्याय:।  गोड  हा  ॥41  ॥

      ॥श्रीगुरूदत्तात्रेयार्पणमस्तु  ॥ 
॥अ  व  धू  त  चिं  त  न  श्री  गु  रू  दे  व  द  त्त  ॥ 

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